ताज़ा तरीन....

Sunday, January 17, 2010

इक आग का दरिया है....



कटवारिया सराय की गली का एक कमरा । कमरे को देखकर ऐसा लगता है कि
बनने के बाद से आज तक वहाँ ताज़ी हवा और सूरज की किरणें नहीं पहुंची है । इसी कमरे में, मै मिलने पहुंचा गोरखपुर के सदानन्द गुप्ता से, जो पिछले नौ साल से आईएएस की तैयारी कर रहें हैं ।

जब मैं पहुंचा तो दिन के लगभग दो बजे थे । सदानन्द अपनी पढाई में मशगूल थे। कमरे व्यवस्थित था जिसमें एक कोने में कुछ किताबें रखीं थी, वहीं दूसरे कोने में एक कैनवास और कुछ रंग रखे हुए थे । सदानन्द ने फर्श पर ही बिस्तर लगाया हुआ था और सामान के नाम पर एक रेडियो और एक चौकी रखी हुई थी ।

सदानन्द ने बताया कि महंगाई इतनी बढ़ गई है कि अब दोनों वक़्त खाना, खाना बन्द कर दिया है।
वे कहते हैं कि "पिछली बार घर गया था तो सत्तू लाया था और शाम के समय उसी से काम चला लेते है"।
सदानन्द याद करते हैं नौ साल पहले का समय जब वो दिल्ली में आये थे । उस समय वो जितने रूपये में काम चला लेते थे उसके दुगुने में भी अब काम नहीं चल रहा । दूध और जूस का तो स्वाद भी भूल चुका हूं ।
कई दिन से सुकूनभरी नींद को तरसती आँखें उनकी कहानी बयां कर देती है। दो अविवाहित बहनें शादी की उम्र पार कर चुकीं हैं। घरवाले सारी जमा पूंजी उन पर ख़र्च कर चुके हैं । घर से जब भी फ़ोन आता है तो केवल एक ही बात होती है......नौकरी ।

केवल आईएएस ही क्यों? इस सवाल के जवाब में वे थोड़ा गंभीर हो जाते हैं । बताते है कि पिछले 6 प्रसासों में हर बार साक्षात्कार तक पहुँचा हूँ लेकिन हर बार अंतिम सूची में जगह नहीं बना पाया ।
हर बार प्रारंभिक परीक्षा में चयन होने के बाद दोस्त कहते हैं कि इस बार निश्चित ही चयन हो जाएगा, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात।
रूंधे गले के साथ कहते हैं कि इस बार अंतिम प्रयास है और समझ में नहीं आ रहा है कि क्या होगा ?
माताजी को आईएएस का मतलब नहीं पता, वह कहती है कि बेटा बड़ा बाबू नहीं बन पा रहे हो तो छोटा बाबू क्यों नही बन जाते ?
दो बार रेलवे में, और एक बार बैंक में चयन हो चुका है लेकिन सिविल सेवा के मोह के कारण नहीं गए । उम्र इतनी हो चुकी है कि अब किसी नौकरी के योग्य नहीं है। अगर इस बार चयन नहीं हुआ तो क्या करेंगे।
सदानन्द एक फीकी हंसी के साथ कहते हैं कि ऐसा हुआ तो यमराज और छोटा राजन में से ही एक को चुनना होगा ।


माता-पिता के सपने और कुंआरी बहनों के बारे में सोचता हूं तो कलेजा कांपने लगता है और कदम लड़खड़ा जाते हैं । अब खा़ली हाथ घर भी नही जा सकते।

आईएएस बनने के बाद क्या रिश्वत लेंगे? सवाल के जवाब में उनकी मुठ्ठीयां भिंच जाती है और चेहरे पर एक आक्रोश झलकनें लगता है ।
कहते है कि रिश्वत क्यों नही लूंगा । जब ये समाज मेरी बहन की शादी के लिए रिश्वत लेता है और मुझसे विश्वविद्यालय में नोकरी की एवज में रिश्वत मांगी जाती है तो मै रिश्वत क्यों नहीं लूं ।

पिछलें छ: प्रयासों में मैने धौलपुर हाउस में ईमानदारी की बात करने वाले खूब देखे है। ईमानदारी और सादगी की बातें केवल किताबों में ही अच्छी लगती है। अगर आपके पास पैसा हो तो सिद्धान्त अपने आप बन जाते हैं ।

कमरें में रखे कैनवास और रंगों की इशारा करते हुए मैने पूछा कि पेटिंग में रूची थी तो उस क्षेत्र में क्यों नही गए?
यह सुनकर सदानन्द के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ जाती है, और फिर वे यादों के भंवर में डूब जाते हैं । वे कहते है कि ज़िंदगी थ्री इडियटस फिल्म जितनी आसान नहीं होती है।
कितनी रूचि थी पेटिंग में और कितने ही चित्र बनाये थे, लेकिन सब अरमान धरे रह गए । पिताजी ने कहा कि ये चित्रकारी खाली बैठे अमीर आदमियों का चोंचला है, किसी सरकारी नौकरी के लिए प्रयास करो ।

सदानन्द तो एक बानगी भर है, न जाने कितने सदानन्द मुनिरका, कटवारिया सराय और मुखर्जी नगर की गलियों में अपने सपनें खोज रहे है। महज पांच सौ सीटों के लिए लगभग तीन लाख छात्र इस रण में उतरते है । किसी शायर की कही ये पंक्तियां इस समर के लिए कितनी उपयुक्त बैठती है “एक आग का दरिया है, बस डूब के जाना है।“

पोस्ट अरविन्द कुमार सेन द्वारा गई लिखी गई है


अरविन्द कुमार सेन
हिन्दी पत्रकारिता
भारतीय जनसंचार संस्थान,नई दिल्ली
फोन नं. 9716935061

Monday, December 21, 2009

मीडिया ख़बर की "ख़बर" : जागो मोहन प्यारे


लगता है मीडिया ख़बर मैच की रिपोर्ट छापने में इतना रोमांचित हो गया था कि ख़बर की DATE LINE को ही ग़लत छाप बैठा । यहाँ साल ख़तम होने को आया है, और ये जनाब अभी अगस्त महीने में ही झूल रहे हैं ,वैसे ये पोस्ट किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर नहीं लिखी गयी ,क्योंकि अक्सर मैं ख़ुद मीडिया से जुडी ख़बरों से
रु -ब-रु होने के लिए यहीं आता हूँ ।
मुझे अच्छी तरह याद है की पिछले दिनों मीडिया ख़बर में हड़बड़ी में गड़बड़ी शीर्षक लिए स्टार न्यूज़ की ख़बर को बतौर "हेडर" तरह इस्तेमाल किया गया था ।



उम्मीद है कि मीडिया ख़बर आगे से इन ज़रूरी बातों का ध्यान रखेगा

Sunday, December 20, 2009

मधुशाला

"मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला
"

आज आइये इस अमर "मधुशाला" की ओर रुख़ किया जाए,और जी भर के इसका रस पान किया जाए ।

Thursday, December 17, 2009

Saturday, December 5, 2009

कश्मीरी गीत और आशा भोसले की आवाज़


आशा जी की आवाज़ में आपने अब तक बहुत से हिंदी गीतों,ग़ज़लों को सुना होगा,आज आनंद लीजिये एक कश्मीरी गीत का


(जानता हूँ बोलों को समझने में दिक़्क़त होगी,पर यक़ीन जानिये,जब ये गीत मेंने मेरी मॉं को सुनाया तो वो बोलीं कि ये गीत आज उन्हें 20 साल बाद सुनने को मिला, और वो ज़हन से उतर चुके उन बोलों को ढ़ूंढकर, गीत के बोलों के साथ अपने बोल जोड़ रहीं थीं।

Monday, November 30, 2009

राग मियाँ मलहार

आनंद लें राग मियाँ मलहार का







इस ऑडियो को अपलोड करने के बाद एक अजीब बात हुई ...हुआ यूं कि sahespuriya जी की टिप्पणी आई

" अरे चाचा क्या सुनवा दिया , ज़िन्दाबाद पूरा होता तो मज़ा आता ",

मन में ख़याल आया कि मैंने तो पूरा गाना ही अपलोड किया था

(ये फाइल सिर्फ़ एक प्रयोग थी प्लयेर को जांचने के लिए ,इस प्लयेर को पहली बार इस्तेमाल कर रहा था ,जो कि इरफ़ान जी ने सिखाया है )

मैंने अपलोड की गई फाइल को सुनना तय किया ,गाना पूरा बजा , पर अचानक अपनी आवाज़ को सुन कर मैं हैरान हो गया
(अपलोड करते समय मुझे लगा था कि फाइल दोनों आईं हैं पर चलेगी सिर्फ़ पंडित जी वाली, मुझे पूरा सुन लेना चाहिए था )

ख़ैर, सोचा चलो जो हुआ , उसे सुधारा जा सकता है . यानी अपनी आवाज़ वाली फाइल को निकालने का जतन.

दूसरे ही पल विचार आया कि ये काम मैंने जान कर नहीं किया,ख़ुद -ब-ख़ुद हो गया .और साथ में जो बात अलग सी लगी वो ये कि दोनों (पंडित भीम सेन जी और गंगू बाई हंगल ) एक ही घराने से सम्बंधित हैं ( किराना घराना )

गंगू बाई हंगल जी से उनके "अन्ना " को अलग करने का काम मुझसे न हो सका ,इसलिए यहाँ प्लयेर को जों का त्यों लगा रखा है ,



गंगुबाई से जुडी ये बातें मैंने किसी ब्लॉग में छपी पोस्ट से पढ़ी थीं ,और ऐसे ही इसे अपने शोक के लिए अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड कर लिया था , इसलिए कई ग़लतियाँ होंगीं रेकॉर्डिंग के दोरान , उसके लिए सभी गुणी जनों से क्षमा चाहता हूँ ,पर अभी याद नही है कहाँ से पढ़ा था ?(पता लगने पर ब्लॉग का नाम ज़रूर छापूंगा

गंगुबाई हंगल (1913 - 2009)

Wednesday, November 4, 2009

पहल....


"जो कहना मानेगा उसे ईनाम मिलेगा"

रोहित आज दौड़ में अव्वल आया है,और वो इस बात से ख़ुश है,कि बेशक वो अन्य बच्चों की तरह ज़िंदगी की एक ख़ास दौड़ में जल्दी शामिल न हो पाया हो(शिक्षा पाने की दौड़ में) पर आज वो भी इस दौड़ का हिस्सा बन चुका है, और उसी की ही तरह कई और बच्चे भी इसमें शामिल हो रहे हैं।
रोहित के माता-पिता जे.एन.यू में मज़दूरी करते हैं,
वहीं बेसिल, रजत, समीर, नेहा कुछ एक ऐसे नाम है ,जो अपने स्तर पर इन बच्चों को समाज की मुख्य धारा में शामिल करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं ।बेसिल जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय में सोशियोलॉजी का छात्र हैं,और इस संगठन के सबसे पुराने सदस्य ।जो हफ़्ते में 1 या 2 दिन केंद्रीयविद्यालय (जे.एन.यू) के प्रांगण में इन बच्चों को पढ़ाने आते हैं ।
बातचीत के कुछ अंश...
प्रश्न) इस तरह की पहल करने का विचार कैसे आया ?
जे.एन.यू (जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय) में उन दिनों नए छात्रावास बन रहे थे, और कई राज्यों से आए मज़दूर यहाँ काम कर रहे थे । इन मज़दूरों के बच्चे को किसी भी तरह की शिक्षा नहीं मिल रही थी,और दिन भर ये बच्चे इधर उधर घूमा करते थे ।जिस वजह से मेरे मन में ऐसी एक पहल करने का विचार का आया ।

प्रश्न) शुरुआत में कितने सदस्य थे ?
शुरुआत में हम सिर्फ़ 3 सदस्य थे,जिसमें जे.एन.यू के ही सोशियोलॉजी, और राजनीतिशास्त्र के छात्र शामिल थे, आज हमारा 8 से 9 लोगों का समूह है,और साथ ही कुछ लोग “ वॉलेंटेयर ” के रुप में भी काम करते हैं ।

प्रश्न) कुल कितने बच्चे आते हैं यहाँ ?
हमारे साथ कुल 20 बच्चे हैं,पहले तो इनमें से कई बच्चे यहाँ आने से कतराते थे, पर फिर धीरे-धीरे ये हमसे जुड़ते चले गए ।

प्रश्न) बच्चे कौन कौन से दिन यहाँ आते हैं? और इन्हें यहाँ क्या कुछ सिखाया जाता है ?
ये बच्चे हर शुक्रवार को 3 से 6 बजे तक हमारे साथ रहते हैं, वैसे ये बच्चे स्कूल भी जाते हैं, और हम भी इन्हें खेल के माध्यम से ही कुछ न कुछ सिखाने की कोशिश करते हैं, जैसे गणित, हिंदी,अंग्रेज़ी।


प्रश्न) क्या इन बच्चों के साथ किसी तरह की परेशानी भी हुई ? अब इन बच्चों में आप किस तरह का बदलाव देखते हैं ?
शुरुआत में कुछ कठिनाईंयाँ ज़रुर महसूस हुईं,क्योंकि बच्चों की पारिवारिक पृष्ठभूमि थोड़ी अलग थी, घर का माहौल अलग था,इसलिए ये बच्चे आपस में जल्दी घुलते-मिलते नहीं थे, ये बच्चे बहुत “एग्रेसिव ” थे ,जिस वजह से इन्हें कुछ सिखाना भी थोड़ा मुश्किल हो जाता था, अब इनके व्यवहार में काफ़ी बदलाव देखने को मिल रहा है,या कहें कि अधिक सोशल हो रहे हैं । कई बार तो उस एग्रेशन (ग़ुस्से) को कम करने के लिए कहना पड़ता था....“ जो कहना मानेगा उसे ईनाम मिलेगा ”( मुस्काते हुए) ।

Wednesday, September 30, 2009

सीता माँ की अग्नि परीक्षा के समय का एक चित्रण.



सीता को देखे सारा गाँव.......
सीता को देखे सारा गाँव
आग पे, कैसे धरेगी पाँव ?
आग पे, कैसे धरेगी पाँव ?

बच जाए तो, देवी माँ है,
बच जाए तो देवी माँ है,
जल जाए तो पापन।
बच जाए तो, देवी माँ है, जल जाए तो पापन।
जिसका रुप जगत की ठंड़क,
अग्नि उसका दर्पण,
अग्नि उसका दर्पण।
लोग जो चाहें सोचे समझे, वो तो हैं नादान
लेकिन इनको क्या कहियेगा? ये तो हैं भगवान ।
अग्नि पार उतर के सीता जीत गई विश्वास, देखा दोनों हाथ बढ़ाए राम खड़े थे पार ।
उस दिन से संगत में आया, सचमुच का बनवास.....सचमुच का बनवास, सचमुच का बनवास
सीता....... सीता को देखे सारा गाँव......
आग पे.... कैसे धरेगी पाँव ? .
THIS IS A SONG SUNG BY RAVI NAGAR , HE HAS RECIEVED THE STATE ACADEMY AWARD FOR MUSIC , RAVI NAGAR IS A MUSIC DIRECTOR SINGER AND MUSIC COMPOSER. HAILING FROM LUCKNOW
http://safarr.blogspot.com से साभार



Monday, September 28, 2009

सुरों की लता


अब तक न जाने कितना कुछ कहा,और सुना गया होगा लता जी के लिए,और मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आने वाले कई वर्षों तक ये सिलसला यूँ ही जारी रहेगा । मेरे पास कहने को यूँ तो कुछ ज़्यादा नहीं है, पर जितना कुछ सुना, पढ़ा है वही यहाँ लिख रहा हूँ । मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में 28 सितंबर सन् 1929 को मास्टर दीनानाथ मंगेशकर (ग्वालियर घराना) और शुद्धमति के घर जन्म हुआ नन्ही लता का, जो आज 80 बरस की हो गईं हैं ।


लता जी ने पाँच साल की उम्र से पिता के साथ एक रंगमंच कलाकार के रूप में अभिनय करना शुरु कर दिया था। उन्‍होंने अपना पहला गाना साल 1942 में वसंत जोगलेकर की फ़िल्म ‘हिती हसाल’ में संगीतकार सदाशिवराव नेवरेकर (जो कि दीनानाथ मंगेशकर के मित्र भी थे )के लिए के लिए गाया। लेकिन पिता को उनका फ़िल्मों में गाना पसंद नहीं था,पर नेवरेकर जी ने उन्हें किसी तरह मनाया और गाना रिकॉर्ड हुआ। पर न वो फिल्‍म आई और न गाना रिलीज़ हुआ। उनका शुरुआती जीवन भी काफ़ी प्रेरणादायक है,पिता की मृत्यु के बाद 13 वर्षीय लता के कंधों पर ही घर की ज़िम्मेदारियों ने “ शरण ” ली ।


फिर मराठी फिल्मों में अभिनय शुरू किया,जो कि ज्यादातर मास्टर विनायक (अभिनेत्री नंदा के पिता)द्वारा बनाईं गईं थीं। जबकि उन्हें अभिनय कभी रास नहीं आया। 1947 में मास्टर विनायक का निधन हो गया,और फिर उनका साथ शुरु हुआ मास्टर ग़ुलाम हैदर के साथ।


के.एल सहगल लता के जी प्रिय गायक थे,पर इसे विड़म्बना ही कहिये,कि जिस दिन वो एक रेडियो ख़ास तौर से, उनके गीतों को सुनने के लिए लाईं, उसी दिन उस पर उन्हें उनके प्रिय गायक की मृत्यु का समाचार सुनना पड़ा ।


जीवन के इतने उतार चढ़ाव को देख चुकीं लता जी, न सिर्फ़ संगीत में उनके योगदान के कारण याद रखे जाने योग्य है, बल्कि एक प्रेरणा हैं । जिनसे विकट परिस्थिती में भी जीवन को जीने का गुर सीखा जा सकता है।


इस संगीत के सफ़र में, लता जी ने हमें कई खू़बसूरत और यादगार गीत दिये,सलाम उस स्वर कोकिला को जिन्होंने हमें दिया गीतों का ऐसा सदाबहार चमन जो सदाबहार था, सदाबहार रहेगा.............



कुछ दिलचस्प :
: लता जी का असली नाम है “हेमा”, पर पिता ने अपने एक नाटक के किरदार “लतिका ” से उनका नाम लता रख दिया।
: दिलीप कुमार के एक व्यंग के कारण उर्दू सीखी ।
: कुछ मराठी फिल्मों में संगीत भी दिया ।

Thursday, September 24, 2009

मज़हब नहीं सिखाता आपस मैं बैर रखना


ईद के पाक मोक़े पर आपको ईद मुबारक
ख़ुशी की बात है कि, इस बार "ईद" और "नवरात्र " जैसे पवित्र त्यौहार एक ही समय पर आये |
अक्सर जब हिन्दू और मुस्लिम भाईयों के त्यौहार एक ही वक़्त पर पड़ते हैं तो ख़ुशी होती है ,
और मन में एक सवाल भी जन्म लेता है ???
जब ऊपर वाला भी कई बार, एक ही वक़्त पर "अपने भक्तों", "अपने बन्दों" की मुरादें सुनने का वक़्त एक सा चुनता है,
तो फिर क्यों इंसान की बनाई मज़हब की ये ऊंची दीवार ढहने का नाम नहीं लेती ????

"ईद के पाक मोक़े पर नुसरत साहब की आवाज़ का जादू"

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