
बात पिछले दिनों की है,बहुत दिनों से कोई फ़िल्म नहीं देखी थी! फिर अचानक ख़याल आया कि क्यों न एक बार फिर वो ही फ़िल्म देख ली जाए जो मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक रही हमेशा,वैसे भी आजकल कम ही फिल्में "देखने " लायक़ बनती है, असल तो "दिखाना" होता है!
खैर जिस फ़िल्म का ज़िक्र करना था वो फ़िल्म थी सन् 1970 में आई ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म "आनंद "! आनंद किसी कल्पना की तरह है, हवा के झोंके की तरह ! कहानी दो दोस्तों की, उनके रिश्ते की,उनकी छोटी सी मुलाक़ात की !
"भास्कर बनर्जी और आनंद की ! इस फ़िल्म को देखने के बाद कहा जा सकता है कि फ़िल्म कई पहलु लिए हुए है ! एक दोस्त ( भास्कर बनर्जी , कैंसर एक्सपर्ट ) जो किसी भी क़ीमत पर अपने उस "आनंद " को बचाना चाहता है, जो वक्त के हर पल के साथ मौत के क़रीब जा रहा है.......! जो भास्कर को मौत के साथ ज़िन्दगी को जीने का हुनर सिखा जाता है! भास्कर जानता है कि वो आनंद को नहीं बचा पाएगा !
तभी तो "भास्कर " ये कहने को मजबूर होता है कि "ज़िन्दगी को बचाने की क़सम निभाते निभाते अब क़दम- क़दम पर ऐसा महसूस होता है कि जैसे मौत को जिंदा रखने कि कोशिश कर रहा हूँ "!
"आनंद सहगल " एक ऐसा ख़ुशमिज़ाज शख्स जो खुशबू की तरह है, जहाँ जाता है अपने होने का ख़ास एहसास करा जाता है ! उसे "लिम्फोसर्कोमा ऑफ़ इंटस्टआइन है " यानी कैंसर ! आनंद के चरित्र से बिल्कुल अलग चरित्र है भास्कर का ,बिल्कुल रूखा,सख्त, जिसके मन् में जज़्बात तो है ,पर वो उन्हें ज़ाहिर नहीं करता ! आनंद को अपनी बीमारी का पूरा एहसास है "वो जानता है कि उसे क्या बीमारी है, उसके पास वक्त बहुत कम है , पर वो तो ज़िन्दगी के हर एक पल में छुपी खुशियाँ को जी लेना चाहता है ! तभी तो वो कहता है "ज़िन्दगी बड़ी होनी चाहिए लम्बी नहीं , मौत तो एक पल है ,मौत के डर से अगर ज़िंदा रहना छोड़ दिया ,तो मौत किसे कहते हैं "?
फ़िल्म "आनंद" ज़िन्दगी और मौत के फ़ल्सफ़े को बखूबी बता देती है ! हर पल को कैसे जिया जाए,इन छोटे छोटे पलों में, यही सब बताती है फ़िल्म "आनंद "!
इस फ़िल्म में भले ही कलाकारों के पात्र छोटे हों, पर सभी कहानी को सिर्फ़ आगे बढ़ाने में सहायक हैं !
यही ख़ास खूबी रही है ऋषिकेश मुख़र्जी की सभी फिल्मों की ,फिर चाहे फिल्म "आनंद" हो "मिली "या फिर फिल्म गोलमाल !
फिल्म आनंद के कई दृश्य ऐसे रहे जो आंखों में आँसू और दिल को छू जाते हैं !
फिल्म के संवाद लिखे "गुलज़ार साहब" ने !ज़रा एक बानगी देखिये-
"हम सब तो रंग मंच की कटपुतलियाँ हैं, जिनकी डोर ऊपर वाले की उँगलियों में बंधी है ,कब कौन कैसे उठेगा ?ये कोई नहीं बता सकता है" !
और आख़िरकार वो लम्हा आ ही जाता है जिसके न आने की दुआ हर वो शख्स मांगता है ,जो आनंद को चाहता है, अपने आख़री लम्हों में आनंद कहता है कि "वो मरना नहीं चाहता ,क्योंकि उसका दोस्त भास्कर उसकी मौत को सह नहीं पाएगा" !
आनंद की मौत हो जाती है ......................
(आनंद मरा नहीं,आनंद मरते नहीं............... )
फिल्म का संगीत दिया सलिल चौधरी ने जो कहानी और कानों दोनों को भाता है,गीत गुलज़ार और योगेश के ! आइये सुनते हैं आनंद फिल्म का ये बेहतरीन गीत, जो ज़िन्दगी की हक़ीक़त को बयां करता है !
(फिल्म ज़रूर देखिएगा )
maine anand nahin dekhi hai magar haan,eske baare mein suna bahut kuch hai....ab jaroor dekhni hai par...
ReplyDeleteआनंद मेरी भी पसंदीदा फिल्मों में से एक है। और इसका गीत कहीं दूर....मुझे बहुत पसंद है।
ReplyDeleteआपने ब्लॉग की बाजू पट्टी में डोर का गाना दिया है, वह भी शानदार गीत है मित्र।
सही कहा, अभिनय, कथानक, तकनीकी दृष्टि या सन्देश, आनंद हर लिहाज़ से एक लाजवाब फिल्म थी.
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